कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित/Kabir Das Ke Dohe With Meaning
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित:
"यह तन विष की बेलरी, गुरु अमृत की खान।
शीश दियो जो गुरु मिले, तो भी सस्ता जान।।"
भावार्थ -
यह शरीर जहर से भरा हुआ है और गुरु अमृत की खान हैं। अगर अपना सर देने के बदले में आपको कोई सच्चा गुरु मिले तो ये सौदा भी बहुत सस्ता है।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"कहैं कबीर देय तू, जब लग तेरी देह।
देह खेह होय जायगी, कौन कहेगा देह।।"
भावार्थ -
जब तक देह है तू दोनों हाथों से दान किए जा, जब देह से प्राण निकल जाएगा, तब न तो यह सुन्दर देह बचेगी और न ही तू, फिर तेरी देह मिट्टी में मिल जाएगी और फिर तेरी देह को देह न कहकर शव कहा जाएगा।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"जग में बैरी कोई नहीं, जो मन शीतल होए।
यह आपा तो डाल दे, दया करे सब कोए।।"
भावार्थ -
आपका मन हमेशा शीतल होना चाहिए अगर आपका मन शीतल है तो इस दुनिया में आपका कोई भी दुश्मन नहीं बन सकता।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"ऐसी बानी बोलिये, मन का आपा खोय।
औरन को सीतल करे, आपहु सीतल होय।।"
भावार्थ-
हमें ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जो सुनने वाले के मन को बहुत अच्छी लगे। ऐसी भाषा दूसरे लोगों को तो सुख पहुँचाती ही है, बोलने वाले को भी बड़े आनंद का अनुभव होता है।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"प्रेम न बाडी उपजे, प्रेम न हाट बिकाई।
राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई।।"
भावार्थ -
प्रेम ना तो खेत में उपजता है और ना ही बाजार में बिकता है। चाहे कोई राजा हो या साधारण प्रजा यदि प्रेम पाना चाहते है तो अपना क्रोध, काम, इच्छा, भय त्यागना होगा।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"प्रेम पियाला जो पिए, सिस दक्षिणा देय।
लोभी शीश न दे सके, नाम प्रेम का लेय।।"
भावार्थ -
प्रेम का प्याला केवल वही पी सकता है जो अपने सिर का बलिदान देने को तत्पर हो। एक लोभी-लालची अपने सिर का बलिदान कभी नहीं दे सकता, भले वह कितना भी प्रेम-प्रेम चिल्लाता हो।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"चलती चक्की देख के, दिया कबीरा रोये।
दो पाटन के बीच में, साबुत बचा न कोए।।"
भावार्थ -
चलती हुई चक्की को देखकर कबीर रोने लगे कि दोनों पाटों के बीच में आकर कोई भी दाना साबुत नहीं बचा अर्थात इस संसार रूपी चक्की से निकलकर कोई भी प्राणी अभी तक निष्कलंक नहीं गया है।
✅कबीर दास के दोहे हिन्दी अर्थ सहित
"मल मल धोए शरीर को, धोए न मन का मैल।
नहाए गंगा गोमती, रहे बैल के बैल।।"
भावार्थ -
लोग शरीर का मैल अच्छे से मल मल कर साफ़ करते हैं किन्तु मन का मैल कभी साफ़ नहीं करते। वे गंगा और गोमती जैसे नदी में नहाकर खुद को पवित्र मानते हैं परन्तु क्या इससे मन का मेल मिटाता है।
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